मंदिर का श्राप - एक सच्ची कहानी
रात का अंधेरा अपनी चरम सीमा पर था। हवा में अजीब सी सनसनाहट थी और जंगल के पेड़ साए की तरह झूम रहे थे। वीर रावत अपनी धीमी मगर गूंजती हुई आवाज़ में यह कहानी सुनाने जा रहे हैं, जो दिल को झकझोर देने वाली है।
गांव के बाहर एक पुराना मंदिर था, जिसे लोग "श्रापित मंदिर" कहते थे। कहते हैं कि वहां जाने वाला कभी लौट कर नहीं आता था। उस मंदिर की दीवारों पर अजीब आकृतियाँ बनी थीं, और अंदर हमेशा दीपक जलता रहता था, जबकि वहाँ कोई पुजारी नहीं था।
अज्ञात भय की शुरुआत
यह कहानी शुरू होती है रमेश से, जो एक युवा पत्रकार था और तर्कशील इंसान था। उसने मंदिर के बारे में बहुत कहानियाँ सुनी थीं और सोचा कि इन अंधविश्वासों की पोल खोलनी चाहिए। एक रात, वह अपने कैमरे और टॉर्च के साथ मंदिर की ओर निकल पड़ा।
जैसे ही उसने मंदिर की चौखट पर कदम रखा, एक ठंडी हवा का झोंका उसके शरीर को चीरता हुआ निकल गया। अचानक मंदिर के अंदर जलता दीपक बुझ गया और चारों ओर गहरा अंधेरा छा गया।
उसके कदम अनायास ही अंदर बढ़ते गए। जैसे ही उसने प्रवेश किया, उसे लगा कि कोई उसके पीछे खड़ा है। उसने धीरे से गर्दन घुमाई, लेकिन वहाँ कुछ नहीं था।
मंदिर के भीतर का रहस्य
मंदिर के अंदर जाने के बाद रमेश ने देखा कि वहाँ एक पुरानी मूर्ति थी, जो अधजली मालाओं से लदी हुई थी। तभी मंदिर की दीवारों पर हाथों के निशान उभर आए, जैसे कोई उसे रोकना चाह रहा हो। तभी अचानक उसे एक औरत की चीख सुनाई दी। वह पीछे मुड़ा और देखा कि एक साया तेजी से उसकी ओर बढ़ रहा है।
रमेश ने भागने की कोशिश की, लेकिन उसके पैर जैसे जम गए थे। तभी उसे किसी ने जोर से धक्का दिया और वह बेहोश हो गया। जब उसकी आँख खुली, तो वह मंदिर के बाहर पड़ा था, लेकिन उसके कपड़े फटे हुए थे और शरीर पर अजीब निशान थे।
श्राप का रहस्य
अगले दिन, गाँव के बुजुर्गों ने रमेश को बताया कि यह मंदिर एक शापित आत्मा का निवास है। सौ साल पहले, एक साध्वी ने यहाँ तपस्या की थी, लेकिन गाँव के कुछ लोगों ने उसके साथ छल किया और उसे मंदिर में ज़िंदा जला दिया। मरते समय उसने श्राप दिया कि जो भी मंदिर में प्रवेश करेगा, वह या तो पागल हो जाएगा या गायब हो जाएगा।
रमेश ने उस रात जो देखा था, उसे भूलना असंभव था। कुछ ही दिनों में वह अजीब हरकतें करने लगा, अकेले में बातें करने लगा और फिर एक रात, वह अचानक गायब हो गया। लोग कहते हैं कि उसने श्रापित मंदिर की आत्मा को जगा दिया था।
अंतिम भय
आज भी, जो कोई भी उस मंदिर के पास जाता है, उसे रमेश की परछाईं वहाँ भटकती हुई दिखती है। अगर आप कभी इस मंदिर के पास जाएँ और किसी को अपना नाम पुकारते सुनें, तो भूलकर भी पीछे मत देखना...
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